Sanskrit Subhashitani : दोस्त नमस्कार क्या आप संस्कृत सुभाषितानि हिंदी अर्थ सहित – Sanskrit Subhashita with meaning in Hindi खोज रहे हैं. तो आपने एक दम सही पोस्ट चुनी है
इस पोस्ट के माध्यम से आज हम आपको Best Sanskrit Subhashitani Slokas बताएंगे. तो आइए संस्कृत सुभाषितानि जानते हैं
संस्कृत सुभाषितानि अर्थ सहित

चिता चिन्तासम ह्युक्ता बिन्दुमात्र विशेषतः ।
सजीवं दहते चिन्ता निर्जीवं दहते चिता ।।
अर्थ ➥ चिता और चिंता में मात्र एक बिन्दु (अनुस्वार) का ही फर्क है किन्तु दोनों ही एक समान है, जो जीते जी जलाता है वह चिंता है और जो मरने के बाद (निर्जीव) को जलाता है वह चिता है
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने – हितोपदेश ।।
अर्थ ➥ हर एक पर्वत पर माणिक नहीं होते, हर एक हाथी में गंडस्थल में मोती नहीं होते, साधु सर्वत्र नहीं होते, हर एक वन में चंदन नहीं होता. उसी प्रकार दुनिया में भली चीजें प्रचुर मात्रा में सभी जगह नहीं मिलती
एकवर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धेनुषु ।
तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मृतम् ।।
अर्थ ➥ जिस प्रकार विविध रंग रूप की गायें एक ही रंग का (सफेद) दूध देती है. उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्त्व की सीख देते है
सर्वं परवशं दुःखं सर्वम् आत्मवशं सुखम् ।
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुख दुःखयोः ।।
अर्थ ➥ जो चीजें अपने अधिकार में नही है वह सब दुःख है तथा जो चीज अपने अधिकार में है वह सब सुख है
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतो सुखम् ।।
अर्थ ➥ आलसी मनुष्य को ज्ञान कैसे प्राप्त होगा? यदि ज्ञान नहीं तो धन नही मिलेगा. यदि धन नही है तो अपना मित्र कौन बनेगा? और मित्र नही तो सुख का अनुभव कैसे मिलेगा
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् ।
सर्व देव नमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ।।
अर्थ ➥ जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदीयों के माध्यम से अंतिमत: सागर से जा मिलता है. उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है
नीर क्षीर विवेके हंस आलस्यम् त्वम् एव तनुषे चेत् ।
विश्वस्मिन् अधुना अन्य: कुलव्रतं पालयिष्यति कः ।।
अर्थ ➥ अरे हंस यदि तुम ही पानी तथा दूध भिन्न करना छोड़ दोगे तो दूसरा कौन तुम्हारा यह कुलव्रत का पालन कर सकता है? यदि बुद्धि वान् तथा कुशल मनुष्य ही अपना कर्तव्य करना छोड़ दे तो दूसरा कौन वह काम कर सकता है?
पापं प्रज्ञा नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः ।
नष्टप्रज्ञः पापमेव नित्यमारभते नरः ।।
अर्थ ➥ बार-बार पाप करने से मनुष्य की विवेक बुद्धि नष्ट होती है और जिसकी विवेक बुद्धि नष्ट हो चुकी हो. ऐसा व्यक्ति सदैव पाप ही करता है
पुण्यं प्रज्ञा वर्धयति क्रियमाणं पुनः पुनः ।
वृद्ध प्रज्ञः पुण्यमेव नित्यम् आरभते नरः ।।
अर्थ ➥ बार-बार पुण्य करने से मनुष्य की विवेक बुद्धि बढ़ती है और जिसकी विवेक- बुद्धि बढ़ती रहती हो ऐसा व्यक्ति हमेशा पुण्य ही करती है
अनेक शास्त्रं बहु वेदितव्यम् अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः ।
यत् सारभूतं तदुपासितव्यं हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात् ।।
अर्थ ➥ पढने के लिए बहुत शास्त्र हैं और ज्ञान अपरिमित है. अपने पास समय की कमी है और बाधाएं बहुत है. जैसे हंस पानी में से दूध निकाल लेता है उसी तरह उन शास्त्रों का सार समझ लेना चाहिए
सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम् ।
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम् ।।
अर्थ ➥ जो व्यक्ति सुख के पीछे भागता है उसे ज्ञान नही मिलेगा तथा जिसे ज्ञान प्राप्त करना है वह व्यक्ति सुख का त्याग करता है. सुख के पीछे भागने वाले को विद्या कैसे प्राप्त होगी ? तथा जिसको विद्या प्राप्त करनी है उसे सुख कैसे मिलेगा?
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् ।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसंश्रयः ।।
अर्थ ➥ मनुष्य जन्म, मुक्ति की इच्छा तथा महापुरूषों का सहवास यह तीन चीजें परमेश्वर की कृपा पर निर्भर रहती है
दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत् ।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् ।।
अर्थ ➥ दिनभर ऐसा काम करो जिससे रात में चैन की नींद आ सके. वैसे ही जीवनभर ऐसा काम करो जिससे मृत्यु पश्चात सुख मिले
उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् ।
तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम् ।।
अर्थ ➥ कमाए हुए धन का त्याग करने से ही उसका रक्षण होता है. जैसे तालब का पानी बहते रहने से साफ रहता है
खल: सर्षपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ।।
अर्थ ➥ दुष्ट मनुष्य को दूसरों के भीतर अधिक दोष दिखाई देते हैं. परंतु स्वयं के अंदर कोई दोष नहीं दिखाई देता है
दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ।।
अर्थ ➥ धन खर्च होने के तीन मार्ग है दान, उपभोग तथा नाश जो व्यक्ति दान नही करता उसका धन उपभोग भी नही होता और उसका धन नाश की और चला जाता है
यादृशै: सन्निविशते यादृशांश्चोपसेवते ।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पूरूष: ।।
अर्थ ➥ मनुष्य जिस प्रकार के लोगों के साथ रहता है, जिस प्रकार के लोगों की सेवा करता है, जिनके जैसा बनने की इच्छा करता है, वैसा वह होता है
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम् ।।
अर्थ ➥ ये मेरा है, वह उसका है जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं. विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है
क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत् ।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ।।
अर्थ ➥ प्रत्येक क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए, क्षण को नष्ट करके विद्याप्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम् ।
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम् ।।
अर्थ ➥ तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम् ।
प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः ।।
अर्थ ➥ सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो, उस सत्य को मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद है. इसी प्रकार से उस झूठ को भी मत कहो जो सर्वजन को प्रिय हो, यही सनातन धर्म है
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।
अर्थ ➥ हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती, मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है
धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयत प्रजाः ।
यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः ।।
अर्थ ➥ “धर्म” शब्द की उत्पत्ति “धारण” शब्द से हुई है. अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है, यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है. अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।
अर्थ ➥ आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों की ही स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं. अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं, केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है. अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है
सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत् ।
यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम् ।।
अर्थ ➥ यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो. मेरे विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम ।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।
अर्थ ➥ बुद्धिमान व्यक्ति काव्य, शास्त्र आदि का पठन करके अपना मनोविनोद करते हुए समय को व्यतीत करता है और मूर्ख सोकर या कलह करके समय बिताता है
तैलाद् रक्षेत् जलाद् रक्षेत् रक्षेत् शिथिल बंधनात् ।
मूर्ख हस्ते न दातव्यं एवं वदति पुस्तकम् ।।
अर्थ ➥ एक पुस्तक कहती है कि मेरी तेल से रक्षा करो (तेल, पुस्तक पर दाग छोड़ देता है), मेरी जल से रक्षा करो (पानी पुस्तक को नष्ट कर देता है), मेरी शिथिल बंधन से रक्षा करो (ठीक से बंधे न होने पर पुस्तक के पृष्ठ बिखर जाते हैं) और मुझे कभी किसी मूर्ख के हाथों में मत सौंपो
श्रोतं श्रुतनैव न तु कुण्डलेन दानेन पार्णिन तु कंकणेन ।
विभाति कायः करुणापराणाम् परोपकारैर्न तु चंदनेन ।।
अर्थ ➥ कान की शोभा कुण्डल से नहीं बल्कि ज्ञानवर्धक वचन सुनने से है, हाथ की शोभा कंकण से नहीं बल्कि दान देने से है और काया (शरीर) चन्दन के लेप से दिव्य नहीं होता बल्कि परोपकार करने से दिव्य होता है
भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती ।
तस्यां हि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम् ।।
अर्थ ➥ भाषाओं में सर्वाधिक मधुर भाषा गीर्वाणभारती अर्थात देवभाषा (संस्कृत) है. संस्कृत साहित्य में सर्वाधिक मधुर काव्य हैं और काव्यों में सर्वाधिक मधुर सुभाषित हैं
उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्त मरणं तृणम् ।
विरक्तस्य तृणं भार्या निस्पृहस्य तृणं जगत् ।।
अर्थ ➥ उदार मनुष्य के लिए धन तृण के समान है. शूरवीर के लिए मृत्यु तृण के समान है. विरक्त के लिए भार्या तृण के समान है और निस्पृह (कामनाओं से रहित) मनुष्य के लिए यह जगत् तृण के समान है
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन् ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते ।।
अर्थ ➥ राजत्व प्राप्ति और विद्वत्व प्राप्ति की किंचित मात्र भी तुलना नहीं हो सकती क्योंकि राजा की पूजा केवल उसके अपने देश में ही होती है जबकि विद्वान की पूजा सर्वत्र (पूरे विश्व में) होती है
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्यणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मगाः ।।
अर्थ ➥ जिस प्रकार से सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं चले जाते, सिंह को क्षुधा-शान्ति के लिए शिकार करना ही पड़ता है. उसी प्रकार से किसी कार्य की मात्र इच्छा कर लेने से वह कार्य सिद्ध नहीं हो जाता, कार्य उद्यम करने से ही सिद्ध होता है
चिन्तनीया हि विपदां आदावेव प्रतिक्रिया ।
न कूपखननं युक्तं प्रदीप्त वान्हिना गृहे ।।
अर्थ ➥ जिस प्रकार से घर में आग लग जाने पर कुँआ खोदना आरम्भ करना युक्तिपूर्ण (सही) कार्य नहीं है उसी प्रकार से विपत्ति के आ जाने पर चिन्तित होना भी उपयुक्त कार्य नहीं है. किसी भी प्रकार की विपत्ति से निबटने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए
दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत् ।
उष्णो दहति चांगारः शीतः कृष्णायते करम् ।।
अर्थ ➥ दुर्जन जो कि कोयले के समान होते हैं, से प्रीति कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि कोयला यदि गरम हो तो जला देता है और शीतल होने पर भी अंग को काला कर देता है
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रं अमित्रस्य कुतो सुखम् ।।
अर्थ ➥ आलसी को विद्या कहाँ? (आलसी व्यक्ति विद्या प्राप्ति नहीं कर सकता), विद्याहीन को धन कहाँ? (विद्याहीन व्यक्ति धन नहीं कमा सकता), धनहीन को मित्र कहाँ? (धन के बिना मित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती), मित्रहीन को सुख कहाँ ? (मित्र के बिना सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती)
उदये सविता रक्तो रक्तशचास्तमये तथा ।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महामेकरूपता ।।
अर्थ ➥ जिस प्रकार से सूर्य सुबह उगते तथा शाम को अस्त होते समय दोनों ही समय में लाल रंग का होता है अर्थात् दोनों ही संधिकालों में एक समान रहता है. उसी प्रकार महान लोग अपने अच्छे और बुरे दोनों ही समय में एक जैसे एक समान धैर्य बनाए रहते हैं
काको कृष्णः पिको कृष्णः को भेदो पिककाकयो ।
वसन्तकाले संप्राप्ते काको काकः पिको पिकः ।।
अर्थ ➥ कोयल भी काले रंग की होती है और कौवा भी काले रंग का ही होता है फिर दोनों में क्या भेद (अन्तर) है ? वसन्त ऋतु के आगमन होते ही पता चल जाता है कि कोयल कोयल होती है और कौवा कौवा होता है
सर्वोपनिषदो गावः दोग्धा गोपालनन्दनः ।
पार्थो वत्सः सुधीः भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।
अर्थ ➥ समस्त उपनिषद गाय हैं, श्री कृष्ण उन गायों के रखवाले हैं, पार्थ (अर्जुन) बछड़ा है जो उनके दूध का पान करता है और गीतामृत ही उनका दूध है (अर्थात् समस्त उपनिषदों का सार गीता ही है)
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संक्षेप में – Subhashitani in Sanskrit
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